इस मंदिर की ख्याति व पौराणिक महता के कारण प्रतिवर्ष महाशिवरात्रि को तीन दिवसीय मेला लगता है। जहां सरकार द्वारा नीलामी की जाती है। प्रदेश के कोने-कोने से भी श्रद्धालु पहुंचते हैं तथा भगवान वीरभद्र सोखा बाबा की जलाभिषेक करते हैं।
पौराणिक महत्व
लिंग पुराण के मुताबिक दक्ष प्रजापति का यज्ञ इसी स्थल पर हुआ था। जिस यज्ञ के कुंड में दक्ष पुत्री माता सत्ती ने जलकर अपने शरीर का त्याग कर दिया था। इसके बाद भगवान शंकर के इच्छा पर वीरभद्र अवतरित हुए तथा यज्ञ को विध्वंस कर दिए। जिसका साक्ष्य सोखा बाबा का मंदिर व पड़ोस में लोधास स्थित सती कुंड है। उक्त कुंड एक तालाब के रूप में आज भी अस्तित्व में है। जिसके तट पर सत्ती अर्थात मां दुर्गा का मंदिर स्थापित है। हरिद्वार के समीप जिस 'कनखल' में सोखा के अवतरित होने की बात बताई जाती है वह अपभ्रंश होकर आज कड़सर हो गया है।
उत्पति का इतिहास
सोखा बाबा का अध्यात्मिक उल्लेख कई दशकों से गिरधरपुर निवासी पं. विजय कुमार तिवारी द्वारा रचित 'सोखा चालिसा' में मिलता है। जिसमें चालीस चौपाईयों मे पौराणिक साक्ष्यों के साथ श्री वीरभद्र की उत्पति की चर्चा की गई है। जिसके मुताबिक लोधास स्थित देवी मां के मंदिर प्रांगण में ही दक्ष प्रजापति ने भगवान शंकर को अपमानित करने हेतु यज्ञ का आयोजन किया था। जिसमें माता सत्ती जलकर भस्मीभूत हो गई थी। तत्पश्चात शोकग्रस्त हो भगवान शंकर ने अपनी जटा से वीरभद्र को उत्पन्न कर यज्ञ को विध्वंस करने के लिये वहां भेजा था।
स्थानीय लोग कर रहे मंदिर का विकास
महाशिवरात्रि को सोखा धाम पर पुरातन काल से तीन दिवसीय लगने वाले मेला में सूबे के अन्य जिले समेत उतर प्रदेश सहित अन्य प्रदेशों से भी श्रद्धालु वहां पहुंचते हैं। हालांकि प्रशासनिक उपेक्षा के कारण अब गिने-चुने संख्या में ही वे पहुंच रहे है।
कुल देवता हैं वीरभद्र
आचार्य पीतांबर प्रेमेश जी के मुताबिक वीरभद्र सोखा बाबा को कुल देवता के रूप में पूजा जाता है। ऐसे में कुछ लोग तो प्रतीक स्वरूप अपने घरों में ही उनकी पूजा करते हैं। लेकिन पूरे देश में दो जगह उतराखंड के कनखल व बक्सर के कड़सर में ही इनका मंदिर है।
